यूँ तो सालों गुज़र गए पर महसूस करो तो आज सुबह का ही किस्सा है। मुझे लगता था की मैं रात के लिए ही बनी हूँ। दिन मजबूरी का सौदा है, एक ऐसी ज़िम्मेदारी जो निभानी है। सुबह उठने में जितनी मशक्कत की है वो शायद ही किसी और काम में होती होगी।
माँ का भी स्कूल के लिए जगाने का एक schedule होता था। पहले धीमी आवाज़ , फिर जोर से और बाद में न उठे तो ठन्डे पानी के छीटें। और एक बार अगर पानी हाथ में आ गया तो मुह पर छीटें पड़ने ही हैं फिर चाहे आप माँ के क़दमों में गिर के मिन्नतें करो या आँगन में दौड़ जाओ. वोह छीटें पीछा करते और सच में अधखुली आखों से रूह तक छू जाते थे वो बर्फ से ठन्डे छीटें.
आज अचानक उन छीटों की याद सी आ गयी. मुंबई लोकल में जिन्होंने भी सफ़र किया है वोह जानते हैं वहां के rules कितने सख्त हैं। सीट छोड़ने का रिवाज़ नहीं है। चाहे कोई बड़ा हो या बच्चा। बड़े मुश्किलात के साथ २ इंच की जगह मिलती है बैठने की। दिन भर की मशक्कत के बाद ४ पल के आराम का हर कोई हक़दार होता है। इंसानियत औंघा सी रही होती है। या सुबह कच्ची नींद से उठने के कारण या फिर काम के बोझ से। फिर इन बोझिल सी आँखों को किसी और की तकलीफ कहाँ दिखाई देगी.
मैं शायद lucky हूँ. ऐसे तो उम्र ही नींद के झोकें में कटी हैं पर हाँ तकलीफ फिर वोह किसी की भी हो, नज़रंदाज़ नहीं होती। और मुझे शायद कभी इतनी थकान भी नहीं होती। इसीलिए जब भी अपने से ज्यादा ज़रुरत में किसीको देखती हूँ उठ खड़ी हो जाती हूँ उन पैरों पर जिन्हें वैसे भी चलने की आदत है। और उस सीट पे अक्सर कोई बूढा, या छोटा सा बच्चा बैठ जाता है। अगर खुदा की कोई शक्ल है तो उसकी आखें दुआ देती हुई बूढी आखों की तरह होंगी और मुस्कराहट की ताजगी एक छोटे बच्चे की तरह। उस एक पल में खुदा की झलक मिल जाती है वो भी बड़े ही सस्ते में।
लेकिन कुछ और भी होता है.
मुझे किसी और के लिए खड़ा होते देख, अचानक ही एक लहर सी दौड़ जाती है पूरे डब्बे में। हर कोई मुझे अपनी सीट पे जगह देने लगता है। ऐसा लगता है की लोगों के चेहरे पे इंसानियत के ठंडी छीटें मारो तो उनका थकन के नशे से बेहोश ज़मीर जाग जाता है।
और माँ की याद आ जाती है।