
कभी कभी ही होता है जब मैं सोचती हूँ की क्या अच्छा होता कि ढेर सारे पैसे कमा लेती, भगवान ने अच्छा खासा मौका भी दिया था। Bombay में गर्मियों के मौसम में दोपहर के कुछ ढाई बजे जब लोकल गरम सांसें छोड़ती है, और ज़िन्दगी का रस पसीने से नम भीड़ में पल ब पल निचुड़ रहा होता है, तब अक्सर मुझे ऐसे ख़याल आते हैं।
खैर, तो ऐसा ही एक दिन था, लोकल में बड़ी 'गर्दी ' थी और रोज़ की तरह मैं आस पास के लोगों में, चूड़ियों की खनक में, मोगरे की महक में, गोवंडी की गालियों में, होठों की लालियों में कहानियां ढून्ढ रही थी और साथ में सोच रही थी कि ये दौड़ती भागती कहानियां पढ़ने और बनाने में ज़्यादा मज़ा है या किसी कम्फ़र्टेबल गाडी के AC में। जवाब में फिलहाल 'AC ' आने ही वाला था कि मुझे लगा की कोई बच्चा मेरा कुरता खींच रहा है।
नीचे देखा तो वह छोटी सी गुड़िया बोली ' कैरी ले लो न आंटी' । आंटी सुनकर हमेशा दुःख होता है पर वह मेरी तरफ बड़ी हसरत से देख रही थी। गेहुआँ रंग, तारों सी टिमटिमाती आँखें , सूखें होठों पे एक ज़बरदस्ती की हंसी, मैली सी हरे रंग की frock । खुद भी कैरी सी लग रही थी, एक छोटी सी प्यारी सी कच्ची कैरी । कुल चार कैरियाँ थी उसके पास। 20 या 30 रुपये मांगे उसने, मैंने कहा ठीक है दे दो। मैंने पैसे निकाले ही थे की स्टेशन आ गया। जैसा की अक्षय कुमार जी ने कहा है, मुंबई में लोकल रुकने और चलने के बीच सिर्फ एक 'take' देती है और यदि इसमें असफल हुए तो आपका राम ही मालिक है ।
जब तक वह कच्ची कैरी उतर पाती, गाडी चल दी थी, मैंने झांक कर देखा तो वह प्लेटफार्म पर घुटनों के बल गिर पड़ी थी, उसकी आँखें थोड़ी सी बंद हुईं और होठों के एक उलटा चाँद बनाया, जैसे की वह रोने जा रही हो, फिर वह अचानक ही रुक गयी। उसका चेहरा एक पल में बुझ गया। वह एक पल अक्सर मेरे पास आकर घंटो मेरी आँखों में देखता रहता है ।
बच्चे रोते हैं , ज़िद करते हैं , क्यूंकि उनको देखने वाला, उनके रोने से आहत होने वाला, उनकी ज़िद मानने वाला कोई होता है।
कैरी रो भी देती तो कौन देखता ? कौन उसके घुटने को सहलाता ? कैरी एक ऐसे देश में रहती थी जहाँ उसके जैसे कई बच्चों को रोने तक का कोई हक़ नहीं था। ऐसे देश में उनकी कहानियां सुनने वालों की और उन्हें कहानियाँ सुनाने वालों की बहुत ज़रुरत है। Teach for India में काम करके शायद हम सब ऐसे ही कुछ बच्चों को पढाई के साथ साथ इस बात का भरोसा दिला रहे थे कि उनकी हंसी और उनके आंसुओं,उनकी कहानियों का मोल है। शायद तभी मेरी हज़ार गलतियों के बावजूद वो मुझे माफ़ कर देते थे।
AC गाडी नहीं, शायद कैरी की तरह लोकल ही अभी के लिए मेरी असल जगह थी। ये कहानियां ही मेरे मुस्तकबल की परवरिश थी। मैं बस इन्हीं को साथ लिए ज़िन्दगी का सफर तय करूंगी।
खैर, तो ऐसा ही एक दिन था, लोकल में बड़ी 'गर्दी ' थी और रोज़ की तरह मैं आस पास के लोगों में, चूड़ियों की खनक में, मोगरे की महक में, गोवंडी की गालियों में, होठों की लालियों में कहानियां ढून्ढ रही थी और साथ में सोच रही थी कि ये दौड़ती भागती कहानियां पढ़ने और बनाने में ज़्यादा मज़ा है या किसी कम्फ़र्टेबल गाडी के AC में। जवाब में फिलहाल 'AC ' आने ही वाला था कि मुझे लगा की कोई बच्चा मेरा कुरता खींच रहा है।
नीचे देखा तो वह छोटी सी गुड़िया बोली ' कैरी ले लो न आंटी' । आंटी सुनकर हमेशा दुःख होता है पर वह मेरी तरफ बड़ी हसरत से देख रही थी। गेहुआँ रंग, तारों सी टिमटिमाती आँखें , सूखें होठों पे एक ज़बरदस्ती की हंसी, मैली सी हरे रंग की frock । खुद भी कैरी सी लग रही थी, एक छोटी सी प्यारी सी कच्ची कैरी । कुल चार कैरियाँ थी उसके पास। 20 या 30 रुपये मांगे उसने, मैंने कहा ठीक है दे दो। मैंने पैसे निकाले ही थे की स्टेशन आ गया। जैसा की अक्षय कुमार जी ने कहा है, मुंबई में लोकल रुकने और चलने के बीच सिर्फ एक 'take' देती है और यदि इसमें असफल हुए तो आपका राम ही मालिक है ।
जब तक वह कच्ची कैरी उतर पाती, गाडी चल दी थी, मैंने झांक कर देखा तो वह प्लेटफार्म पर घुटनों के बल गिर पड़ी थी, उसकी आँखें थोड़ी सी बंद हुईं और होठों के एक उलटा चाँद बनाया, जैसे की वह रोने जा रही हो, फिर वह अचानक ही रुक गयी। उसका चेहरा एक पल में बुझ गया। वह एक पल अक्सर मेरे पास आकर घंटो मेरी आँखों में देखता रहता है ।
बच्चे रोते हैं , ज़िद करते हैं , क्यूंकि उनको देखने वाला, उनके रोने से आहत होने वाला, उनकी ज़िद मानने वाला कोई होता है।
कैरी रो भी देती तो कौन देखता ? कौन उसके घुटने को सहलाता ? कैरी एक ऐसे देश में रहती थी जहाँ उसके जैसे कई बच्चों को रोने तक का कोई हक़ नहीं था। ऐसे देश में उनकी कहानियां सुनने वालों की और उन्हें कहानियाँ सुनाने वालों की बहुत ज़रुरत है। Teach for India में काम करके शायद हम सब ऐसे ही कुछ बच्चों को पढाई के साथ साथ इस बात का भरोसा दिला रहे थे कि उनकी हंसी और उनके आंसुओं,उनकी कहानियों का मोल है। शायद तभी मेरी हज़ार गलतियों के बावजूद वो मुझे माफ़ कर देते थे।
AC गाडी नहीं, शायद कैरी की तरह लोकल ही अभी के लिए मेरी असल जगह थी। ये कहानियां ही मेरे मुस्तकबल की परवरिश थी। मैं बस इन्हीं को साथ लिए ज़िन्दगी का सफर तय करूंगी।