परछाइयों से खेलती हूँ , लुक्का छुप्पी का खेल
न आइस-पाइस कहके उन्हें आउट कर सकती हूँ
न वो टप्पी देके अपने होने का एहसास दिलाती है
किचन में प्लेट गिरने की आवाज़ अब मेरा काम नहीं रोकती
न सोफे के गद्दों के बीच अब कोई कलम मिलता है
खाली बाथरूम की लाइट अब खुली नहीं होती
रात को उठकर कोई खिड़की अब बंद नहीं करता
ठिठुरती हूँ मैं रातों को मगर
कम्बल रूठे बच्चे सा कोने में पड़ा रहता है
सर से नूरानी तेल की खुशबू अब नहीं आती
क्रोसिन ने चम्पी की जगह जो लेली है
मैंने अब रात की चाय भी बंद कर दी है, अकेले अच्छी नहीं लगती
इक छोटी शिकायत का यह किस्सा क्यों बना डाला
फ़क्त इक दस्तखत ने मेरे माज़ी के सफ्फो से
मेरा सब कुछ कुछ मिटा डाला
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